संवत् १८८ के श्रावण महीने की शुक्ल एकादशी के दिन रात्रि में स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'यदि भगवान का भक्त मन में ऐसा विचार करे कि भगवान के भजन में विघ्न डालने वाला कोई स्वभाव नहीं रखना चाहिए, फिर भी अयोग्य स्वभाव रह जाता है उसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसके अन्दर वैराग्य ही दुर्बलता रहती है उसे टालने की इच्छा होने पर भी वह उस स्वभाव को नहीं टाल पाता है जैसे दरिद्र व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन तथा अच्छे-अच्छे वस्त्रों की इच्छा करे तो भी ये वस्तुएँ उसे कहाँ से मिल सकती हैं ? वैसे ही वैराग्यहीन व्यक्ति के हृदय में इच्छा रहने पर भी साधुता के गुण आने दुर्लभ हैं ।'
पुनः मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जिसमें वैराग्य की भावना न हो वह कौन सा उपाय करे, जिससे उसके मन का विचार टल जाय ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'वैराग्यहीन व्यक्ति यदि किसी बडे सन्त की खूब सेवा करे तब उस पर परमेश्वर की कृपादृष्टि हो सकती है ।' यह चार वैराग्यहीन है और इस कामक्रोधादि विकार अत्यन्त पीडित कर रहे हैं । अतः इसके समस्त विकारों को मिटा देना चाहिए । तब तत्काल समस्त विकार टल जाते हैं । किन्तु प्रयत्न करके तो दीर्घकाल तक साधना करते रहने पर भी इस जन्म अथवा दूसरे जन्म में वे मिटते हैं । परन्तु समस्त विकारों की समाप्ति तो केवल परमात्मा की कृपा से ही हो सकती है ।
इति वचनामृतम् ।।७।। ।। १४० ।।