वचनामृतम् ६

संवत् १८८ के श्रावण की शुक्ल अष्टमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण मंदिर के आगे चबूतरे पर विराजमान थे और समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी। परमहंस ताल तथा मृदंग बजाकर कीर्तन कर रहे थे ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'कीर्तन बंद करें । अब भगवद वार्ता करते हैं । तब समस्त मुनि हाथ जोडकर बैठ गये । श्रीजी महाराज बोले कि -'इस संसार में कितने ही यवन के समान जीव हैं जो यह कहते हैं कि - गंगाजी का पानी तथा अन्य पानी दोनो एक समान हैं । शालिग्राम तथा अन्य पत्थर एक समान है । तुलसी तथा अन्य वृक्ष एक प्रकार के हैं । ब्राह्मण और शूद्र भी एक समान है । ठाकुरजी का प्रसाद अन्न तथा अन्य अन्न दोनों समान है । एकादशी के दिन भूखे रहने तथा अन्य दिन भूखे रहने में समता है तथा साधु और असाधु दोनों एक समान हैं । तब महान पुरुक कहे जाने वाले लोगों ने शास्त्रों में विधि निषेध क्यों किया होगा ?' ऐसा दुष्ट मतिवाले कहते हैं । अतः समस्त सन्तों को हम यह प्रश्न पूछते हैं कि इस विधि-निषेध का जो विभाग महान पुरुषों ने शास्त्रों में कहा है वह सत्य है या कल्पित है ? इस प्रश्न का उत्तर छोटे परमहंस दें । तब छोटे परमहंस बोलने लगे कि - 'विधिनिषेध का भेद सत्य है । यदि ऐसा न हो तो स्वर्ग-नर्क का भेद कैसे कहा जाय ?'
         
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'उम्र छोटी है, लेकिन सच्ची दिशा का ज्ञान है ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज इसका उत्तर करने लगे कि - 'महान पुरुषों ने जो शास्त्रों में प्रतिपादित किया है वह सत्य हैं । यहाँ एक दृष्टान्त है कि - जैसे कोई बडा धनी व्यक्ति को वह किसी को हुंडी लिखकर देता है तब उस कागज पर एक रुपिया भी नहीं दिखता है । परन्तु उस पर लिखा रुपिया सच्चा है क्योंकि वह हुंडी जिस शाहुकार के नाम पर लिखी होती है उसे देने पर वह उस हुंडी पर से ही रुपियों का ढेर कर देता है । उसी तरह से महापुरुष की आज्ञा से धर्म पालन करने वाले व्यक्ति को प्रथम विधिनिषेध में कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है । परन्तु महान पुरुष की आज्ञा का पालन करने से उसका कल्याण होता है । जैसे हुंडी में भुगतान किए हुए रुपयों की प्राप्ति होती है । जैसे समर्थ व्यक्ति की लिखी हुंडी का विश्वास न करनेवाले को मूर्ख समझना चाहिए । क्योंकि उसे उस साहूकार के प्रताप का ज्ञान नहीं है । उसी तरह से नारद, सनकादि, व्यास, बाल्मीक इत्यादि महान पुरुषों के वचनों में जिसे विश्वास नहीं है उसे नास्तिक समझना चाहिए और महापापी जानना चाहिए । जो नास्तिक बुद्धिवाले होते हैं वे यह समझते हैं कि - अन्य पत्थर में और ठाकुरजी की मूर्ति में क्या अन्तर है ? समस्त पत्थर एक सदृश हैं, परिणित स्त्री और अपरिणित स्त्री में क्या फर्क हैं ? समस्त स्त्रियाँ एक समान हैं । घर की स्त्री और माता बहन में क्या फर्क है ? सभी का एक समान आकार है । रामकृष्णादि जो भगवान की मूर्तियाँ हैं, वे भी मनुष्य जैसी ही हैं । अतः अधिक-न्यून का भाव तो मनुष्य ने अपनी कल्पना से उत्पन्न किया है । परन्तु क्या करे ? मनुष्य के साथ रहना है । अतः मनुष्य की हाँ में हाँ करनी चाहिए । परन्तु विधि निषेध का मार्ग गलत है ऐसा पापी और नास्तिक अपने मन में समझते हैं । अतः जिसकी इस प्रकार की बोली हो उसे पापिष्ठ और नास्तिक ही जानना चाहिए और उसे चाँडाल समझकर उसका किसी प्रकार से संग नहीं करना चाहिए ।'
         
पुनः श्रीजी महाराज ने दूसरी वार्ता की और कहा कि - 'मनुष्य मात्र का चित्त तो कैसा होता है जैसे शहद, गुड, शक्कर, चीनी सबका गाढा पानी समान होता है । अगर उस शहद, गुड, शक्कर, चीनी के पानी में मक्खी, चींटी या चींटा गिर जाय तो वह चिपक जाते हैं और यदि मनुष्य हाथ लगाता है तो उसकी उँगली पर चिपक जाता है । ऐसी ही चित्त का भी स्वभाव है कि जिस-जिस पदार्थ के बारे में सुनता है उस-उस पदार्थ में लग जाता है । पत्थर, कूडा और कुत्ते का मल आदि जो निकृष्ट वस्तुएँ हैं उसमें तो लेशमात्र भी सुख नहीं है । तब भी इनमें चित्त लग जाता है और यदि वह याद आ जाय तो उसका ही चिन्तन होने लगता है । ऐसा चित्त का चिपकने का स्वभाव है । जैसे बडा काँच का दर्पण हो उसमें बडे सन्त आये तो उसमें उनका प्रतिबिम्ब दिखाई देता है और यदि कुत्ता, गधा, चांडाल आदि आये तो उनका भी प्रतिबिम्ब दिखाई देता है । वैसे ही चित्त में भी अत्यन्त निर्मलता रहती है । अतः उसमें जिस पदार्थ की स्मृति आ जाती है, वही दिखाई देने लगता है । उसमें अच्छे बुरे का कोई मेल नहीं होता है । अतः मुमुक्षुओं को ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि - 'मुझे वैराग्य नहीं है, इसलिए मेरे चित्त में स्त्री आदि पदार्थों की स्फुरणा होती रहती है ।' वे तो जो वैराग्यवान हैं उनके चित्त में भी जब जिस पदार्थ की स्मृति जाग उठती है तो उसका स्वरुप सहज ही उनके सामने आ जाता है । अतः वैराग्य का अवैराग्य का कोई कारण नहीं है । बल्कि चित्त का स्वभाव ही ऐसा है कि 'वह अच्छी या बुरी सुनी हुई बात का चिन्तन करता रहता है ।' जब वह जिस पदार्थ का चिन्तन करता है तब वही पदार्थ उसके सामने दर्पण के समान आ जाता है । अतः यह समझना चाहिए कि - 'मैं तो इस चित्त से भिन्न हूँ तथा मैं उसे देखनेवाली आत्मा हूँ ।' ऐसा जानकर अच्छे-बुरे संकल्पों से ग्लानि उत्पन्न नहीं करना चाहिए । स्वयं को चित्त से अलग जानकर भगवान का भजन करना चाहिए और सदैव आनन्द में रहना चाहिए ।'
                            
इति वचनामृतम् ।।६।। ।। १३९ ।।