संवत् १८८ के श्रावण की शुक्ल तृतीया के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज गढडा में दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे रेशम की गद्दी पर विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी तथा मुनि झांझ और मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अब कीर्तन बंद करिए । हम वार्ता करते हैं ।' इस प्रकार से कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे आत्यन्तिक कल्याण प्राप्त करना हो तथा नारद सनकादिक जैसा साधु बननाहो उसको इस प्रकार विचार करना चाहिए कि इस शरीर में जीव रहा है तथा इन्द्रियाँ और अन्तःकरण जीव के साथ बंधे हुए हैं और इन्द्रियाँ और अन्तःकरण बाहर भी पंचविषयों से जकडे हुए है । अतः जीव अज्ञान वश इन्द्रियों और अन्तःकरण से भिन्न है और पंचविषय अन्तःकरण से अलग हैं । परन्तु विषयों के अभ्यास करते रहने से अन्तःकरण में पंचविषयों की एकता दिखाई देती है । विषयों की उत्पत्ति इन्द्रियों से होती है अन्तःकरण से नहीं होती । जिस प्रकार से तेज धूप या तीव्र ठंडक का सबसे पहला असर बाह्य रुप से इन्द्रियों पर होता है उसके पश्चात इन्द्रियों के द्वारा अन्तःकरण में प्रवेश करता है । परन्तु उसकी उत्पत्ति भीतर से नहीं होती है वह बाहर से उत्पन्न होकर अन्तःकरण में प्रवेश करती है । जैसे शरीर के बाहर फोडा होता है तब उस पर औषध लगाने से आराम मिलता है । परन्तु केवल वार्तालाप सुनने से आराम नहीं होता । जिस प्रकार से भूख और प्यास लगी हो तो वह खाने पीने से ही मिटती है । परन्तु अन्न एवम् जल की चर्चा सुनने से पेट नहीं भरता। वैसे ही जो पंच विषयरुपी रोग है उनको औषध द्वारा ही दूर किया जा सकता है । उस औषध का प्रकार यह है कि - जब त्वचा को स्त्री आदि का स्पर्श होता है तब त्वचा द्वारा अन्तःकरण द्वारा आत्मा में प्रवेश होती है परन्तु विषयों की उत्पत्ति का मूल स्थान जीव और अन्तःकरण नहीं है । अन्तःकरण में जिस जिस विषय की उत्पत्ति होती है वे पूर्व जन्म में इन्द्रियों द्वारा बाहर से ही आते हैं । अतः विषयों को टालने का उपाय यही है कि त्वचा के द्वारा स्त्री आदि पदार्थ के स्पर्श का त्याग करना चाहिए । नेत्र द्वारा उनका रुप नहीं देखना चाहिए। जिह्वा द्वारा उनकी बात नहीं करनी चाहिए । कान के द्वारा उनकी बात नहीं सुननी चाहिए और नासिका के द्वारा गंध नहीं लेनी चाहिए । इस प्रकार पंच इन्द्रियों द्वारा विषयों का त्याग दृढतापूर्वक करना चाहिए । तब विषयों का प्रवाह बाहर से अन्दर नहीं प्रवेश कर सकेगा । जिस प्रकार से कुएँ में से आती हुई पानी की धारा को कपडे से बाँधकर कुएँ को साफ किया जा सकता है उसी प्रकार से बाह्य इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने से अन्तःकरण में बाह्य विषयों का प्रवेश नहीं हो सकता । जैसे उदर में उत्पन्न रोग उदर में दवा जाने से ही मिटती है वैसे ही अन्तःकरण में इन्द्रियों द्वारा पहले से प्रवेश किए विषयों की समाप्ति आत्मविचार द्वारा कर देना चाहिए । वह आत्मविचार इस प्रकार से करना चाहिए कि - 'मैं आत्मा हूँ और मुझसे इन्द्रियों और अन्तःकरण का कोई सम्बन्ध नहीं है ।' इस प्रकार से दृढ विचार करके उस चैतन्य में भगवान की मूर्ति को धारण करके और आत्मसुख मानकर परिपूर्ण रहना चाहिए । जैसे कुआँ जल से पूर्ण भरा हो तब बाहर से आनेवाली पानी की धारा को अपने भीतर प्रवेश नहीं होने देता और यदि खाली हो जाने पर इन धाराओं का पानी बाहर से अन्दर आता है । वैसे ही आत्मसुख द्वारा आन्तरिक रुप से परिपूर्ण रहना चाहिए और बाहर पंच इन्द्रियों द्वारा विषयों का मार्ग बन्द कर देना चाहिए । यही कामादि के जीतने का दृढ उपाय है । परन्तु ऐसा किए बिना केवल उपवास के द्वारा कामादिक का पराजय नहीं होता है । अतः इस विचार को दृढतापूर्वक मन में रखना चाहिए।
इति वचनामृतम् ।।२।। ।। १३५ ।।