।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम् ।।
।। श्री गढडा मध्य प्रकरणम् ।।
संवत् १८ के ज्येष्ठ की शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी । मस्तक पर सफेद पाघ धारण किया था और श्वेत पुष्पों का हार पहना था । उनके मुखारविन्द के आगे मुनिमंडल तथा देश देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी और उनके समक्ष परमहंस, झांझ तथा मृदंग लेकर गायन कर रहे थे ।
श्रीजी महाराज ने कीर्तन करनेवाले से कहा कि - 'अब कीर्तन बंद करिए । और प्रश्नोत्तर कीजिए ।' मुक्तानंद स्वामी ने हाथ जोडकर नमस्कार करके श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! मोह का क्या रुप है ? मोह का निवारण करने का क्या उपाय है ?'
श्रीजी महाराज थोडी देर विचार करके बोले कि - 'मोह का स्वरुप तो मन में भ्रान्ति जैसा रहता है ऐसा प्रतीत होता है । जब पुरुष के हृदय में मोह वृद्धि प्राप्त करता है तब मन में विशेष भ्रम हो जाता है । तब कर्तव्या कर्तव्य का विवेक नहीं रह जाता है । उस मोह होने के कारण पर तो आज ही हमने विचार किया है । आज अर्ध रात्रि के समय जब हमारी नींद उड गयी थी । उसके बाद उत्तर दिशा की तरफ मुख करके हम लेटे थे । उस समय ध्रुवतारा दिखा तो यह विचार आया कि - 'यह तो उत्तरी ध्रुव है परन्तु शास्त्र में दक्षिण ध्रुव कहा है वह कहाँ होगा ? फिर हमने दक्षिणि ध्रुव की खोज की तब वह भी दिखाई दिया । जैसे कुएँ पर पानी सींचने की रहट होती है उसी तरह दोनों ध्रुवों के बीच बडी रहट देखी । उस रहट के मेरु की दो धारें दोनों और ध्रुव से लगी हुई हैं । जिस प्रकार से लकडी का स्तंभ हो उसमें लोहे की कीले लगी हुई हों । उस रहट पर जैसे सूत की रस्की लिपटी रहती है और उस रहट के साथ पीतल जैसी फुल्ल्यिाँ जडी हों जैसे ही समस्त तारे, देवता, नवग्रह आदि अपने स्थानरुपी रहट का आश्रय लेकर रहे हैं, उन सबको देखा । उसके पश्चात् सूर्य और चन्द्र का उदय और अस्त भी जो एक ही स्थल से होता है उसे भी देखा । पुनः अन्तर्दृष्टि द्वारा यह देखा कि जितने ध्रुव आदि ब्रह्मांड में हैं उतने ही सब पिण्ड में भी हैं । इस देह में स्थित नेत्रज्ञा को भी देखा । उस क्षेत्रज्ञा में पुरुषोत्तम भगवान रहें हैं उन्हें भी देखा । उन भगवान के दर्शन करके हमारा मन उनके स्वरुप में अत्यन्त तन्मय हो गया । फिर समाधि में किसी भी प्रकार से नहीं निकल पाये । ततपश्चात् किसी भक्त ने आकर हमारी बहुत स्तुति की। अतः उस पर दया करके हमें पुनः शरीर में आना पडा । मेरे अन्तःकरण में यह विचार आया कि समाधि में से तो दया करके बाहर निकलकर आये हैं परन्तु अन्य व्यक्ति को समाधि में से निकलना पडे तो उसका क्या कारण होगा ?' बाद में मुझे ऐसा लगा कि - 'उसे किसी विषय में आसक्ति है उसके लिए पुनः समाधि में से बाहर आना पडा है ।' मोह का कारण भी पंचविषय ही हैं। ये विषय भी तीन प्रकार के हैं - उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । उसमें जब उत्तम विषय की प्राप्ति होती है तब अन्तराय करनेवाली कोई वस्तु रोकती है तब उस पर क्रोध होता है और उससे मोह उत्पन्न होता है । सामान्य रुप से श्रोत्रेन्द्रिय शब्द से सम्बन्धित है । त्वचा का स्पर्श से सम्बन्ध रहता है । इस प्रकार पंच ज्ञानेन्द्रियों का सम्बन्ध पंचविषयों से रहता है । जिस पदार्थ को सामान्य रुप से देखा हो उस पदार्थ में से अपनी वृत्ति को तोडकर भगवान के स्वरुप में रखना हो तो उसके लिए विशेष प्रयास नहीं करना पडता । वह सहज रुप से विषयों में से वृत्ति टूटकर भगवान के स्वरुप में लीन हो जाती है । स्त्रियों आदि का अतिशय रुप देखने में आया हो और उसमें चित्तवृत्ति तल्लीन हो तो भगवान के स्वरुप में ध्यान लगाने पर भी मन नहीं लगता और चित्त भी स्थिर नहीं रहता । अतः जब तक चित्त रमणीय पंचविषय में लालायित है तब तक मोह नहीं टल सकता । जब उस व्यक्ति का मन उसके प्रिय विषय में लगा हो उस समय संत तथा गुरु अथवा इष्टदेव, भगवान द्वारा निषेध किये जाने पर उसे उन पर क्रोध आता है और उनसे द्रोह करने लगता है । उनके वचनों को नहीं मानता । इस प्रकार का जिसके अन्तःकरण में व्यवहार हो उसे मोह कहते हैं। यह बात भगवान ने गीता में कही है -
'ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधो।भिाजयते ।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति ।।'
श्रीकृष्ण भगवान का यह वचन परम सिद्धांतकारी है । जब शब्दादिक किसी विषय में चित्त लगा रहता है तब चाहे कैसा भी बुद्धिमान व्यक्ति हो परन्तु उसकी बुद्धि का कोई ठिकाना नहीं रहता है । वह पशु के समान हो जाता है। अतः मोह की उत्पत्ति होने का कारण विषयों में आसक्ति ही है । जिसे इन विषयों में से अपने चित्त को हटाना हो उसे प्रथम आत्मनिष्ठा को अत्यंत दृढ करना चाहिए कि - 'मैं आत्मा हूँ परन्तु जो देह वह मैं नही हूँ ।' एक तो यह विचार दृढ करना चाहिए और दूसरे जिस प्रकार से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है उस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । तीसरा भगवान के स्वरुप का महात्म्य अच्छी तरह समझना चाहिए । ऐसा विचार करना चाहिए कि - 'पंच विषयों का निर्माण तो भगवान के द्वारा होता है अतः भगवान ने तो उसकी अपेक्षा ज्यादा सुख है क्योंकि शब्द में केवल शब्द सम्बन्धी सुख होता है किन्तु अन्य चार विषयों का सुख शब्दमें नहीं होता । वैसे ही स्पर्श में स्पर्श का ही सुख होता है अन्य नहीं । उसी तरह से रुप में रुप सम्बन्धी सुख होता है और रस तथा गन्ध उनमें अपने अपने सम्बन्धी सुख होते हैं । परन्तु एक विषय में पंचविषयों का सुख एक साथ नहीं होता है । परन्तु भगवान का जो स्वरुप है उसमें समस्त सुख एक साथ रहते हैं । अतः केवल भगवान के दर्शन से ही भक्त पूर्णकाम हो जाता है । उसी तरह से भगवान का स्पर्श आदि भी भक्त को पूर्णकाम करता है ।' विषय सम्बन्धी सुख जो मायिक हैं । वे सब नाशवन्त हैं, और भगवान सम्बन्धी सुख है वह अखण्ड है । इस प्रकार भगवान के स्वरुप का माहात्म्य का विचार अत्यन्त दृढ करना चाहिए । ये तीन विचार जो कहे हैं उनके द्वारा विषयों में से आसक्ति टल जाती है । विषयों के अच्छे या बुरे होने का भेद नहीं रहता । जैसी रुपवान स्त्री और कुरुप स्त्री दोनों एक समान लगती हैं । उसी तरह से पशुपक्षी, लकडी, कंडे, पत्थर और सोने को वह समान भाव से देखता है । परन्तु अच्छे पदार्थ को देखकर वहमोहित नहीं होता । वह पंचविषयों के प्रति इस प्रकार का व्यवहार करता है किन्तु उनमें अच्छे या बुरे का भेद नहीं रखता है । इस प्रकार से आचरण करनेवाले को निर्मोही कहा जाता है । श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि - 'समलोष्टाश्मकांचनः' इस प्रकार का जिसका लक्षण हो उसके बारे में यह समझना चाहिए कि उसने भगवान के स्वरुप को तत्वतः जान लिया है और उसे ही अनन्य भक्त कहा जाता है । पतिव्रता के अंगवाला अनन्य भक्त और ज्ञानी भी उसे ही समझना चाहिए । भगवान भी ऐसे लोगों पर प्रसन्न होते हैं । भगवान ने गीता में कहा है कि - 'प्रियो हि, ज्ञानिनो।त्यर्थंमहं स च मम प्रियः ।' ऐसे जो पतिव्रता के अंगवाले होशियार व्यक्ति ही हों ऐसा नहीं है जिसे इच्छा हो उन सभी भक्तों को प्राप्ति हो सकती है । इस संसार में भोली स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं और कुछ स्त्रियाँ चतुर होने पर भी व्यभिचारिणी होती हैं । अतः चतुर स्त्री और भोली स्त्रियों का कोई मेल नहीं हो सकता । अतः जिसे कल्याण की इच्छा हो वह पतिव्रता का अंग रखकर भगवान की भक्ति करती है । जहाँ तक अच्छे और बुरे विषय की बात है उसमें कोई एक दिन में हो ऐसा कर ले और निर्मोही हो जाऊँ इस प्रकार से शीघ्रता करने से काम नहीं होता । यह तो धीरे धीरे आदर भावना रखने से होता है । जैसे कुएँ के किनारेपर लगे हुए पत्थर से भीतर से पानी खींचते रहने से रस्सी नरम हो जाती है । फिर भी बहुत दिनों से ऐसा करते रहने से उस पत्थर पर निशान पडते हैं। यदि लोहे की जंजीर द्वारा कुएँ में से पानी खींचा जाय तो भी ऐसा निशान नहीं पडता । अतः कल्याण के लिए प्रयत्न करनेवाले व्यक्ति को विषयों में से आसक्ति टालनी चाहिए । और व्याकुल होकर उद्विग्न नहीं होना चाहिए । गीता में भी कहा गया है - 'अनेकजन्मसंसिस्त तो यति परां गतिम् ।'
अतः यह विचार करना चाहिए कि 'इस जन्म में विषयों में से जितनी आसक्ति टल सकती है उतनी टालनी है । यदि ऐसा करने पर भी कुछ आसक्ति रह गई हो तो उसे दूसरे जन्म में टालना पडेगा । परन्तु, भगवान के भक्त होने के कारण चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना है ।' इस तरह से भगवान के भक्त को हिम्मत रखकर धीरे-धीरे मोह के स्वरुप को जड से उखाडकर फेंकने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । जब तक अच्छे बुरे विषयों में समानता का भाव उत्पन्न न होजाए, तब तक भगवान के भक्त की स्थिति साधन दशा जैसी होती है । जब अच्छे और बुरे विषयों में समानता प्रतीत होती है तब वह भक्त सिद्ध दशा को प्राप्त करता है तब उसे कृतार्थ हुआ मानना चाहिए । वेदों, शास्त्रों, पुराणों तथा इतिहास सम्बन्धी समस्त ग्रंथों का यही निष्कर्ष है । यह जो हमने बात कही है वह समस्त शास्त्रों का रहस्य है । अतः इस वार्ता को समस्त हरिभक्तों को दृढतापूर्वक हृदय में रखना चाहिए ।
इति वचनामृतम् ।।१।। ।। १३४ ।।