वचनामृतम् ७

संवत् १८ के फाल्गुन की कृष्ण एकादशी के दिन छह घडी दिन चढने पर श्रीजी महाराज श्री पंचाला ग्राम में झीणाभाई के दरबार में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था, गर्म पोस की लाल बगलबन्डी पहनी थी, श्वेत दुपट्टा धारण किया था और सफेद पतली पिछोरी ओढी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देशान्तर के  हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज नित्यानन्द स्वामी से श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कन्ध की कथा करवा रहे थे । उसमें 'जन्माद्यस्य यतः', यह श्लोक प्रथम आया । उसका अर्थ किया तब 'यत्र त्रिसर्गो मृषा' इस श्लोक का अर्थ स्वयं श्रीजी महाराज करने लगे कि - माया के तीनों गुणों का सर्ग जो पंचभूत इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा देवता हैं वे भगवान के स्वरुप में त्रिकाल में नहीं है । ऐसा समझना चाहिए तथा इस श्लोक के पद 'द्याम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकम्' का अर्थ यह है कि जिसने अपने स्वरुप तुल्यधाम द्वारा उस माया के सर्गरुप कपट को नष्ट कर दिया है वही भगवान का परम सत्यवस्था है और आत्यन्तिक प्रलय के अन्त में अक्षरधाम में भगवान का जैसा स्वरुप अनन्त ऐश्वर्य तथा तेज से युक्त रहता है वैसा का वैसा प्रत्यक्ष मनुष्य रुप भगवान में जिसने जान लिया है वह तत्वतः भगवान को जान गया है ऐसा समझना चाहिए । उन्हीं प्रत्यक्ष भगवान को मूढ जीव मायिक दृष्टि से देखता है । अर्थात वह उन्हें अपने सदृश मनुष्य मानता है और वह यह समझता है कि जिस प्रकार उसका जन्म होता है और जिस तरह वह बालक, युवा और वृद्ध होकर मर जाता है, वैसी ही स्थितियाँ, भगवान की भी होती हैं । जब वह भगवान एकान्तिक सन्त के वचन में विश्वास रखकर निष्कपट भाव से भगवान के चरणकमल को भजता है तब उसकी मायिक दृष्टि समाप्त होती है । उसके पश्चात वह भगवान की उसी मूर्ति को परम चैतन्य, सत्चित् तथा आनन्दमय मान ने लगता है । यह बात भी भागवत में कही है कि -

'स वेद धातुः पदवीं परस्य, दुरन्तवीर्यस्य रथांगपाणेः ।
यो।मायया संततयानुवृत्त्या, भजेत तत्पादसरोज गन्धम् ।।'
         
उन भगवान में जो बालक, युवान, वृद्ध भाव तथा जन्ममरण भाव दिखाई देता है वह तो उनकी योगमाया द्वारा दिखाई देता है । वस्तुतः भगवान जैसे हैं वैसे के वैसे ही हैं । जैसे नट विद्यावाला कोई व्यक्ति शस्त्र बाँधकर आकाश में इन्द्र के शत्रु असुरों के योद्धाओं से लडने जाता है, बाद में वह टुकडे-टुकडे  होकर नीचे गिरता है । तत् पश्चात उन टुकडों को इकट्ठा करके नट की स्त्री जल भरती है । इसके बाद वह नट पुनः थोडी देर में आकाश में से हथियारों को बाँधकर जैसा था वैसा ही नीचे आता है और राजा से इनाम माँगता है और कहता है कि - 'मेरी पत्नी लाइये' इस प्रकार की नट की जो माया है उसे कोई नहीं जान पाता है, तो भगवान की योगमाया किस प्रकार समझ में आ सकती है ? जो व्यक्ति नट की माया को जानता है वह ऐसा मानता है कि - 'वह नट मरा नहीं है और न ही जला है । जैसा है वैसे का वैसा ही है । उसी तरह से जो भगवान के स्वरुप को तत्त्वरुप समझता है, वह भगवान को अखण्ड अविनाशी ही मानता है । जब श्रीकृष्ण ने देह का त्याग किया तब उन भगवान की पन्तियाँ रुकमणि आदि उनके देह को लेकर जल मरीं । तब अज्ञानी लोगों ने यह समझा कि - 'अब उनका नाश हो गया ।' जो ज्ञानी थे उन्होंने ऐसा जाना कि वे यहाँ से अन्तर्ध्यान होकर अन्य स्थान पर दिखाई पडे हैं । इस प्रकार भगवान को अखण्ड समझना चाहिए । उसे श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परंभावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।
         
अतः मूर्ख व्यक्ति भगवान को साकार समझता है तो वह केवल मनुष्य के समान ही मानता है । यदि निराकार समझता है तो अन्य आकार को वह मायिक जानता है । वैसे ही भगवान के आकार को भी मायिक जानता है और भगवान के स्वरुप की अरुप कल्पना करता है । इस तरह मूर्ख को तो यह दोनों प्रकार से उल्टी पडती हैं । यदि भगवान का आकार नहीं होता तो आत्यन्तिक प्रलय के समय श्रुति द्वारा यह कैसे कहा जाता कि - 'स ईक्षत' अर्थात वे भगवान देखते थे । जब उन भगवान ने देखा तो उनके नेत्र श्रोत्रादि अवयव सहित साकार दिव्य स्वरुप ही था । यह भी कहा गया कि -
पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ।
         
इस प्रकार से पुरुष रुप होकर पुरुषोत्तम ने माया में वीर्य धारण किया अतः वे भगवान पहले से ही साकार थे । वे पुरुषोत्तम नारायण जब किसी कार्य के लिए पुरुषरुप होते हैं तब वह पुरुष पुरुषोत्तम के प्रकाश में लीन हो जाता है तब केवल पुरुषोत्तम ही रहते हैं । वैसे ही जब वे मायारुप होते हैं तब माया भी पुरुषोत्तम के रुप में विलीन हो जाती है । तब उसमें वे भगवान महत्वरुप होते हैं । वैसे भी महत्व में से प्रकट हुए अन्य तत्त्व तद्रुप होते हैं । इसके बाद इन तत्वों के कार्य विराटरुप होते हैं। इस विराट पुरुष से उत्पन्न ब्रह्मादि तद्रुप हो जाते हैं तथा नारद सनकादि रुप होते हैं इस तरह से अनेक प्रकार के कार्यों के लिए जिस-जिस में उन पुरुषोत्तम भगवान का प्रवेश होता है, उसे वे अपने प्रकाश द्वारा लीन करके स्वयंमेव तद्रूप से सर्वोत्कर्ष भाव के साथ विराजमान होकर रहते हैं । जिनमें वे स्वयं विराजमान रहते हैं उनके प्रकाश को स्वतः ढाँककर अपना प्रकाश प्रकट करते हैं । जिस प्रकार लोहे में रहनेवाली अग्नि लोहे में रहनेवाले शीतलगुण और काले वर्ण को दूर करके स्वयं अपने गुण को प्रकट कर देती है । जब सूर्य उदय होता है तब उसके प्रकाश में समस्त तारागणों एवं चन्द्रमा आदि का तेज विलीन होजाता है तब एकमात्र सूर्य का ही प्रकाश रहता है । जैसे ही उन भगवान का जिस जिसमें प्रवेश होता है तब उसके तेज को तिरोहित करके वे अपने प्रकाश को ही अधिक दिखाते हैं । जिस कार्य के लिए जिसमें उन्होंने स्वयं प्ंवेश किया हो उस कार्य को पूर्ण करने के बाद वे उसमें से स्वतः अलग निकल जाते है । तब वह पुरुष जैसा होता है वैसा ही रहता है । उसमें जो अधिक दैवत दिखायी पडता था वह तो पुरुषोत्तम भगवान का तेज था, ऐसा समझना चाहिए । इस प्रकार से सबके कारण सदा दिव्य साकार प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम नारायण की मूर्ति में शक्कर के रस की मूर्ति की तरह त्यागभाव नहीं समझना चाहिए । परन्तु जैसी मूर्ति देखी हो उसका ध्यान, उपासना एवं भक्ति करनी चाहिए । परन्तु उससे पृथक नहीं समझना चाहिए । उन भगवान में जो देहभाव दिखता है उसे तो नटकी माया की तरह समझना चाहिए । जो इस प्रकार से समझता है उसको उन भगवान के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मोह नहीं होता । यह वार्ता उसी की समझ में आती है जिसे ऐसी दृढ प्रतीति हो जाती है कि - 'आत्यन्तिक प्रलय के समय भी भगवान तथा भगवान के भक्त दिव्य साकररुप द्वार अक्षर धाम में दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं, और उन भगवान का रुप एवम् भगवद् भक्तों का रुप अनन्त सूर्य चन्द्र के प्रकाश के समान प्रकाशयुक्त रहता है ।' इस प्रकार की वार्ता दृढ बुद्धिवाला ही समझ सकता है ।
         
ऐसे तेजोमय दिव्यमूर्ति भगवान जीवों के कल्याण के लिए तथा जीवों के अपनी नवधा भक्ति कराने के लिए कृपापूर्वक अपनी समस्त शक्तियाँ ऐश्वर्य तथा पार्षदों को साथ में लेकर ही मनुष्यरुप में प्रगट होते हैं । तब भी मर्म को जाननेवाले यही समझते हैं कि भगवान का स्वरुप जैसा अक्षरधाम में रहा है वैसा ही पृथ्वी पर भी भगवान का मनुष्यरुप रहता है । वे तो उस स्वरुप तथा इस स्वरुप में लेशमात्र भी फर्क नहीं समझते हैं । इस प्रकार जिन्होंने भगवान को जान लिया है उन्हें ही भगवान को तत्त्वतः जाननेवाला कहा जाता है और उनकी माया की निवृत्ति हो चुकी है । जिसे इस प्रकार का ज्ञान हो जाता है उसे ज्ञानी और एकांतिक भक्त भी कहते हैं ।
         
इस तरह से जिस भगवान के प्रत्यक्ष स्वरुप की दृढ उपासना हो उसे भगवान के स्वरुप के सम्बन्ध में मायिक भाव रहने का कभी भी संशय नहीं होता है । यदि उनसे कभी कुसंगवश या प्रारब्ध कर्म के योग द्वारा कोई अयोग्य आचरण हो जाता है तब भी उनका कल्याण होता है । इस प्रकार से भगवान को समझने में जिसे संशय रहता है तो यदि वह ऊर्ध्वरेता-नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो या महात्यागी हो तो भी उसका कल्याण होना अत्यन्त कठिन होता है । जिसने प्रथम ऐसा निश्चय कर लिया हो कि - आत्यन्तिक प्रलय की समाप्ति होने पर भी भगवान साकार रुप में रहते हैं, ऐसी दृढ ग्रन्थि पड गयी हो उसे शास्त्रोक्त किसी भी ऐसी वार्ता को सुनने पर संशय नहीं होता क्योंकि उसने तो यह समझ लिया है कि - 'भगवान तो सदैव साकार ही है । परन्तु निराकार नहीं है और वे ही भगवान रामकृष्णादि मूर्तियों को धारण करते हैं' जिसमें ऐसा दृढ ज्ञान रहे, उसे परिपक्व निष्ठावाला जानना चाहिए ।'
         
इस प्रकार से श्रीजी महाराज ने अपने भक्तजनों की शिक्षा के लिए अपने स्वरुप की अनन्य निष्ठा सम्बन्धी जो वार्ता की उसे सुनकर समस्त परमहंसों तथा हरिभक्तों ने श्रीजी महाराज के स्वरुप की उसी प्रकार विशेष दृढता की ।
                            
इति वचनामृतम् ।।७।।  ।। १३३ ।।