वचनामृतम् ५

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ल सप्तमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री जयतलपुर के महल में दक्षिण की ओर चौक में उत्तर की तरफ मुख करके पाट पर विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । मस्तक पर महीन पोत की श्वेत पाग धारण की थी । श्वेत महीन चादर ओढी थी और श्वेत धोती पहनी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । रात्रि का डेढ प्रहर बीत चुका था । तब श्रीजी महाराज थोडा विचार करने के बाद बोले कि - 'आप सब सुने आज तो हमें जैसा लगता है वैसी ही बात करने वाले हैं कि भगवान का भजन के सिवा दूसरी कोई बडी बात नहीं है । क्योंकि सब भगवान का ही किया होता है । इस समय तो भगवान के प्रताप से मेरा किया हुआ भी होता है । उसे कहते हैं कि हम मन में वैसा होता है । जब हम इच्छा करते हैं कि हमे राज्य मिलना चाहिये तब उसे राज्य मिल जाता है । जब हम यह इच्छा करते हैं कि उसका राज्य चला जाय तब राज्य चला जाता है । हम इच्छा करते है कि इस पल में यहॉं इतनी वषॉं होनी चाहिये तो वहॉं जरूर से होती है । यदि हम चाहते हैं कि यहॉं वर्षा नहीं होनी चाहिये तो नहीं होती है । यदि इच्छा करते हैं कि इसे धन प्राप्त हो तो उसे धन मिलता है और न प्राप्त होने की इच्छा करते हैं तो नहीं प्राप्त होता । हमारे यह चाहने पर कि इसे पुत्र प्राप्त हो तो उसे पुत्र प्राप्ति होती है और न चाहने पर पुत्र प्राप्ति नहीं होती । हमारे यह चाहने पर कि इसे रोग हो तो उसे रोग भी होता है और रोग न चाहने पर रोग नहीं होता । इस तरह से हम जो धारणा करते हैं वैसा अवश्य होता है ।'
          
तब आप कहेंगे कि सत्संगी को सुख-दुःख होता है और रोगादि प्राप्त होते हैं तथा धन समृद्धि की हानि होती है और वह मेहनत करते मर जाते हैं तो भी दरिद्री जैसा ही रहता है तो इसका कारण तो यह है कि उसे भगवान के भजन में जितनी कसर रह जाती है उतनी ही उसकी स्थिति में बरकत नहीं होती । भगवान को तो उसका कल्याण ही करना होता है । भगवान अपने आश्रितों का शूली का दुःख कांटे से मिटाते हैं । हम तो ऐसा जानते है कि सत्संगी को एक बिच्छु काटने से जितनी पीडा हो तो हमें वही पीडा हजारगुना ज्यादा हो परन्तु हमारे हरिभक्त उस पीडा से रहित हो जाय और सुखी रहें । ऐसा हमने रामानन्द स्वामी के पास मांगा है । हमारी दृष्टि तो ऐसी ही है कि सबका कल्याण हो भगवान में जीव की मनोवृत्ति बनाये रखने का उपाय भी निरन्तर करते रहते हैं । इसका क्या कारण है ? मैं तो भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को समस्त क्रियाओं को जानता हूँ और यहॉं बैठे हुये भी सबको जानता हूँ । माता के उदर में उसे उस समय भी जानते थे जब उदर में नहीं आये थे तब भी जानते थे क्योंकि हम तो भगवान नरनारायण ऋषि हैं । घोर पाप करने वाला जीव भी यदि हमारे आश्रय में आयेगा और धर्म नियमों का पालन करेगा तो उसे हम अन्तकाल में दर्शन देकर भगवान के अक्षरधाम की प्राप्ति करायेंगे । उस अक्षरधाम के स्वामी श्री पुरुषोत्तम भगवान जो प्रथम धर्म देव और मूर्ति देवी द्वारा जिन्हें भक्ति कहते हैं श्री नरनारायण ऋषि के रूप में प्रकट हुये थे और बाद में उन्होंने बद्रिकाश्रम में तप किया वे ही नरनारायण ऋषि इस कलियुग में पाखंडियों के मत का खंडन करने तथा अधर्म के वंश का नाश करने, धर्म के वंश को पुष्ट करने तथा पृथ्वी पर धर्म, ज्ञान, वैराग्य सहित भक्ति का विस्तार करने के लिये इस संसार में विराजमान रहते हैं । ऐसा कहकर अपने आश्रितों को अत्यन्त आनन्दित किया ।
          
पुनः बोले कि - 'हम वारंवार श्री नरनारायण देव की मुख्यता लाते हैं उसका तो यही हादर्य है कि श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम अक्षरधाम के धामी श्री नरनारायण ही इस सभा में नित्य विराजमान रहते हैं । अतः उनका महत्व प्रतिपादित करते हैं । अतः हम अपने इस स्वरूप को दृष्टिगत करते हुये लाखों रूपये खर्च करके शिखर युक्त मंदिर श्री अहमदाबाद में श्री नरनारायणदेव की मूर्तियॉं प्रथम स्थापित की हैं । वे नरनारायण तो अनन्त ब्रह्मांड के राजा है और उसमें भी भरतखंड के विशेष राजा है । प्रत्यक्ष श्री नरनारायण को छोडकर अन्य देवों का भजन करते हैं तो जैसे व्यभिचारिणी स्त्री हो वह अपने पति का त्याग करके अन्य पुरुष की ओर आकृष्ट होती है । श्री नरनारायण ही भरतखंड के राजा हैं । यह श्रीमद् भागवत में कहा गया है । श्री नरनारायण ही भरतखंड के राजा हैं । यह श्रीमद् भागवत में कहा गया है । हम इन सन्त सहित जीवों के कल्याण के लिये प्रकट हुये हैं । अतः आप हमारा वचन मानेंगे तो हम जिस धाम में से आये हैं उस धाम की आपको प्राप्ति करायेंगे । आप भी ऐसा समझे कि आपका कल्याण हो गया है । हममें दृढ विश्वास रखें और जैसा कहते हैं वैसा करेंगे तो आपको कोई महाकाष्ट आ जायेगा तो उससे अथवा सात दुर्भिक्षों जैसी भीषण विपत्ति आयेगी तो भी उससे भी रक्षा करेंगे । हमारे सत्संग के धर्म-नियमों का पालन करेंगे और सत्संग रखेगें और नहीं रखेगें तो महा कष्ट की प्राप्ति होगी उसमें हमें कुछ लेना देना नहीं है । हमने तो इस बार किसी बात की कमी नहीं रखी है । देखिये, इस जयतलपुर ग्राम में कितने यज्ञा किये और कितने वर्षो से यहॉं रहते हैं, तालाब में हमने समस्त सन्तों सहित हजारों बार स्नान किया । जयतलपुर ग्राम में घर-घर में सौ-सौ बार घूमे हैं, घर-घर में जाकर भोजन किया है । इस ग्राम की सीमा और गॉंव को तो हमने वृन्दावन से भी बढकर रमणीय स्थल बनाया है ।' इस प्रकार से श्रीजी महाराज बात कर रहे थे इतनी देर में आकाश में एक विशाल तेजपुंज दिखायी दिया और उसमें से तीन गोले हो गये जो महल के ऊपर आकाश में दिखायी देने के बाद अदृश्य हो गये । तब सबने कहा कि - हे महाराज ! वह क्या था ? तब श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'ब्रह्मा, विष्णु और शिव ये तीनों देव नित्य इन सन्त की सभा का और मेरा दर्शन करने आते हैं । परन्तु आज तो विमान सहित हरिइच्छा से आप सबको दिखायी दिये ।'

इति वचनामृतम् ।। ५ ।। ।। २३४।।

।। श्री जयतलपुर प्रकरणं समाप्तम् ।।