संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री जयतलपुर स्थित ग्राम के महल में दक्षिणी झरोखे में गदृी-तकिया का टेका लगाकर विराजमान थे । उनके मस्तक पर पुष्प गुच्छों से युक्त श्वेत पाग सुशोभित हो रही थी । उन्होंने श्वेत पुष्प की पिछौरी ओढी थी । समस्त अंगों में कसेर चन्दन चर्चित था । श्वेत रेशमी किनारवाला दुपट्टा ओढा था । कंठ में गुलदावदी के हार पहने थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज समस्त सभा को सम्बोधित करते हुये बोले कि - 'इस लोक में जीव का कल्याण तो प्रत्यक्ष भगवान के स्वरूप के सम्बन्ध में निश्चय उनके दर्शन तथा उनकी अखंड स्मृति द्वारा ही होता है । क्योंकि भागवत में ऐसा कहा गया है कि - कंस, शिशुपाल और दन्तवक्र आदि जो दैत्य भगवान की निन्दा करते थे उन्हें भी भगवान की अखंड स्मृति रही जिससे उनका कल्याण हुआ है । अतः भगवान की निरन्तर स्मृति अतः आप लोगों का भी कल्याण हो गया है । तब भी मेरी बांधी हुयी जो धर्म मर्यादा है उसका पालन जीवन पर्यन्त करना चाहिये । तब आप लोग कहेंगे कि भगवान तो मिले हैं और उनकी स्मृति भी निरन्तर रहती है तो व्रत पालन का क्या प्रयोजन है ? उसका अर्थ यह है कि एक भक्त व्रतमान के दृढता वाला है तथा दूसरा भक्त व्रतमान पालन में शिथिल रहता है । तो इन दोनों की है परन्तु जो नियम धर्म रहित है उससे तो अपना ही कल्याण नहीं होता । वह एकान्तिक भक्त भी नहीं होता और भगवान के निर्गुण धाम को भी नहीं प्राप्त करता । वह जन्म-मरण के रहित तो हो जाता है किन्तु वह सत्संग में नहीं बैठ पाता । आप सब तो उत्तम भक्त हैं, धर्म नियम युक्त आप जैसे साधुओं की तो बात ही निराली है । अतः आपको यदि कोई भावपूर्वक भोजन करायेगा तो उसे कोटि यज्ञों का फल मिलेगा । अन्त में उसका मोक्ष होगा । आपके चरणारविन्द का स्पर्श करेगा तो उसका कोटि जन्म का पाप नष्ट हो जायेगा । आपको भावना के साथ वस्त्र ओढायेगा तो उसका भी परम कल्याण होगा । आप जिस-जिस नदी तालाब में पैर डुबोते हैं वह तीर्थ रूप हो जाते हैं । आप जिस जिस वृक्षों के नीचे बैठते हो जिन-जिन वृक्षो के फल खाते हों उन सबका कल्याण हो जाता है । जो कोई भावपूर्वक दर्शन करता है, भावपूर्वक नमस्कार करता है उनके समस्त पापों का क्षय हो जाता है । आप जिसे भगवान की बातें कहते हैं तथा जिसे धर्म सम्बन्धी नियमों की दीक्षा देते हैं उनका मोक्ष होता है । अतः धर्म नियम वाले आप जैसे सन्तों की समस्त क्रियायें कल्याण रूप होती है, क्योंकि प्रत्यक्ष श्री नरनारायण ऋषि का आपको दृढ आश्रय है । वे श्री नरनारायण ऋषि आपकी सभा में निरन्तर विराजते हैं । इन दोनों बातों का यही उत्तर है ।'
आप कहेंगे कि भगवान का दृढ आश्रय है तब मायिक गुण क्यों व्याप्त होते हैं ? उसे कहते हैं - षडुर्मि रहित और मायिक गुणों से रहित करने में कोई देर नहीं लगती और असंख्य जन्मों की स्मृति होने के साथ अनन्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति आदि क्रिया को सम्पन्न करने के निमित्त समक्ष बनाने में भी कोई देर नहीं हो सकती । परन्तु हमारी इच्छा से आप सब को ऐसे रखा है और आपके सामर्थ्य को भी अवरुद्ध कर दिया है । यह उपाय प्रत्यक्ष भगवान द्वारा प्रवृत्त किये जाने वाले सुख की प्राप्ति के लिये किया है । श्री पुरुषोत्तम स्वयं श्री नरनारायण ऋषि के रूप में प्रकट होकर आपको मिले हैं । अतः निःसंशय होकर आनन्दपूर्वक भजन करें ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज मौन हो गये ।
उस समय आशजीभाई ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! कृपया यह बतायें कि - ''वैर भाव से जो कल्याण होता है वह कैसे होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'द्रुपद राजा थे । उन्हें अपनी पुत्री द्रौपदी की शादी करनी थी । अतः उन्होंने स्वयंवर रचा । वहॉं राजाओं मात्र को आमन्त्रित किया था । परन्तु द्रोणाचार्य और पांडव भी आये थे । बाद में दूसरे सभी राजाओं ने मिलकर मत्स्यवेधने का प्रयास किया किन्तु कोई भी राजा मत्स्य न बेध सका । तब युधिष्ठिर ने कहा कि मैं मत्स्य वेध करूंगा । ऐसा कहकर युधिष्ठिरने अपने धनुष पर वाण चढाया तब द्रोणाचार्य ने पूछा - यह सभा दिख रही है ? उन्होंने कहा दिख रही है । उन्होंने कहा हॉं दिखायी दे रहा है । तब द्रोणाचार्य ने कहा कि आप से मत्स्य वेध नहीं होगा । इस तरह से चारों भाईयों से मत्स्य वेध न हो सका । तब अर्जुन आये और उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढाया तब द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा कि मै इस सभा को भी नहीं देखता नहीं मुझे मत्स्य दिखायी दे रहा है किन्तु मैं मत्स्य के ऊपर जो पक्षी है उसे देख रहा हूँ । द्रोणाचार्य ने कहा पक्षी के मस्तक पर अपनी दृष्टि रखो तब अर्जुन ने कहा कि पक्षी को नहीं देखता हूँ । मैं केवल उसका मस्तक देखता हूँ । तब द्रोणाचार्य ने कहा कि अब मत्स्यवेद करो । तब अर्जुनने मत्स्य का मस्तक वेध दिया ।'
इस तरह से समस्त वृत्तियॉं एक भगवान के स्वरूप में स्थिर हो जायें तो वैर भाव से मुक्ति मिल जाती है । जैसे श्रीकृष्ण के स्वरूप में शिशुपाल तथा कंस आदि की वृत्तियॉं तदाकार हो गयी थीं तब उनका कल्याण हुआ इस प्रकार का यदि द्रोह न आये तो वह द्रोह करने वाला नारकी होता है । इससे तो भगवान की भक्ति करना सुलभ है । यदि द्रोह बुद्धि रखकर भगवान का भजन करना है तो उसका असुर नाम कभी नहीं मिटता और वह भक्त भी नहीं कहलाता । अतः असुर की रीति का त्याक करके ध्रुव, प्रहलाद, नारद, सनकादि की पंक्ति में जिसे बैठना हो उसे तो भक्ति पूर्वक भगवान की भक्ति करनी चाहिये । यही अति श्रेष्ठ है ।' इस प्रकार से श्रीजी महाराजने वार्ता की, उसे सुनकर सबको आनन्द प्राप्त हुआ ।
इति वचनामृतम् ।। ४ ।। ।। २३३।।