संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ल चतुर्थी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री जयतलपुर ग्राम में सांयकाल श्री बलदेवजी के मन्दिर के चौक में बिछे पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । पाग में बेला के पुष्पों के तुर्रे लगे हुये थे । बांये हाथ में रुमाल रखे थे और दांये हाथ में तुलसी की माला फेर रहे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज को ब्रह्मानन्द स्वामीने नमस्कार किया और यह प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! यति किसे कहते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे दृढ ब्रह्मचर्य हो और समस्त इन्द्रियॉं जिसके वश में हों उसे पति जानना चाहिये । जो हनुमानजी और लक्ष्मीजी जैसा हो उसे यति जानना चाहिये । जब हनुमानजी रामचन्द्रजी की आज्ञा से सीताजी की खोज में लंका गये तब जानकी जी को पहचानने के लिये लंका की समस्त स्त्रियों को देखा । उन्हें देखते-देखते कहते रहे यह तो जानकी जी नहीं हैं, यह तो जानकी जी नहीं है, ऐसा विचार करते-करते मन्दोदरी को हनुमानजी ने देखा तब उन्होंने सोचा कि यह जानकीजी होंगी ? फिर मन मे विचार आया कि जानकी जी को तो रघुनाथजी का वियोग है अतः इतना पुष्ट शरीर नहीं हो सकता और ऐसी निद्रा भी नहीं आ सकती । ऐसा मन में विचार करके हनुमानजी वापस लौट गये । बाद में उनके मन में ऐसा संकल्प हुआ कि मैं यति हूँ और मैंने इन सब स्त्रियों को देखा है तो क्या मुझे कोई बाधा होगी या नहीं ? उन्होंने पुनः विचार किया कि मैं तो रघुनाथजी की आज्ञा से जानकीजी की खोज कर रहा हूँ । अतः मैंने स्त्रियों को देखा तो क्या बाधा होगी ? उन्होंने पुनः विचार किया कि मेरी वृत्ति तथा इन्द्रियों में रघुनाथजी की कृपा से किसी भी प्रकार का मनोविकार उत्पन्न नहीं हुआ है । इतना विचार करके वह निःसंशय होकर पुनः घूम घूमकर सीताजी की खोज करने लगे । विकार का हेतु होते हुये भी जिसका अन्तःकरण हनुमानजी की तरह से निर्विकार बना रहता है, उसे ही यति कहते हैं । जब जानकीजी का हरण हुआ तब रघुनाथजी और लक्ष्मणजी सीताजी को खोजते-खोजते उस स्फटिक शिला पर गये जहां सुग्रीव थे । उन्होंने सुग्रीव को बताया कि जानकीजी का हरण हो गया है अतः वे उनकी खोज करते करते यहॉं आये हैं । यदि आपको कोई खबर हो तो बतायें । तब सुग्रीव ने कहा कि - हे राम ! हे राम ! शब्द कहते हुये सुना था और इस वस्त्र में बांधकर जो आभूषण गिराये गये थे वह मेरे पास हैं । रघुनाथजीने कहा लाइये उसे देखें । वे आभूषण उन्होंने रघुनाथजी को दिये । रघुनाथजीने उन आभूषणों को लक्ष्मणजी को दिखाया । पहले उन्होंने कान के आभूषण दिखाये फिर हाथों के बाजूबंद आदि दिखाये लेकिन लक्ष्मणजी उन्हें पहचान न पाये । तत्पश्यात पैर के झांझर दिखाये तब उसे देखकर लक्ष्मणजी बोले कि - हे महाराज ! ये तो जानकीजी के झांझर हैं । तब रघुनाथजी ने कहा कि है लक्ष्मण अन्य आभूषण तो पहचान नहीं पाये पैर के झांझर को कैसे पहचाना ? लक्ष्मणजीने कहा कि - हे महाराज ! जानकीजी का स्वरूप तो मैंने नहीं देखा सिर्फ चरणारविन्द देखा है । जब शाम को सीताजी के चरणों में प्रणाम करने जाता था तब तब मैंने झांझर को देखा था इसलिये उसे पहचाना । इस प्रकार से चौदह वर्ष तक सेवा में रहने लेकिन चरणारविन्द के सिवा जानकीजी के स्वरूप को नहीं देखा । अतः जो ऐसा हो उसे यति समझना चाहिये । ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह ब्रह्मानन्द स्वामी भी उन्हीं के समान हैं ।' इस प्रकार से समस्त सभा को सुनाये हुये ब्रह्मानन्द स्वामी की यति भाव की बहुत प्रशंसा की उसके बाद गांव के बाहर पधारे और वहॉं यज्ञा हुआ था उस स्थान पर पत्थर पर पलंग बिछा था उस पर विराजमान हुये । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'कुछ प्रश्नोत्तर करें ?' तब पटेल आशजीभाई ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! इस जीव का स्वरूप कैसा है ? यह यथार्थ समझावे ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जीव तो अछेद्य, अभेद्य, अविनाशी, चैतन्यरूप, अणुमात्र जैसा है । तब आप कहेंगे कि वह जीव कहॉं रहता है ? वह हृदयाकाश में रहता है और वहॉं रहकर वह विविध क्रियाओं को करता रहता है । उनमें से जब उसे रूप देखता है तब वह नेत्रों द्वारा देखता है, शब्द सुनने हों तब वह कर्ण द्वारा सुनता है, नासिका के द्वारा अच्छे-बुरे गंध लेता है, रसना द्वारा वह रसास्वाद लेता है, त्वचा द्वारा वह स्पर्श सुख का आनन्द लेता है, मन द्वारा मनन करता है, चित्त द्वारा चिन्तन करता है तथा बुद्धि द्वारा वह निश्चय भी करता है । इस तरह से दस इन्द्रियों और अन्तःकरणों द्वारा वह समस्त विषयों को ग्रहण करता है । वह नख से शिखा पर्यन्त शरीर में व्याप्त होकर रहा है । वह उससे अलग भी रहता है ऐसा है जीव का स्वरूप उसे भक्त प्रकट प्रमाण पुरुषोत्तम श्री नरनारायण के प्रताप द्वारा यथार्थ रूप से देखता है । दूसरे को तो वह स्वरूप जानने में भी नहीं आता । इस तरह से इस प्रश्न का उत्तर करके सबको प्रसन्न करके जय सच्चिदानन्द कहकर श्रीजी महाराज महल में शयन के लिये पधारे ।
इति वचनामृतम् ।। २ ।। ।। २३१।।