वचनामृतम् १

।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम् ।।
 
।। श्री जयतलपुर वचनामृतम् ।।
 
          
संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम जयतलपुर में महल के चौक में अशोक वृक्ष के नीचे बिछाये गये पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंठ में गुलदावदी के अनेक हार पहने थे । पाग में बेला के तुर्रे झुके हुये थे । उन्होंने दोनों कानों पर कर्णिकार के पुष्प खोंसे थे तथा कर कमल में नींबू के फल को घुमा रहे थे । उस समय चार घडी दिन चढा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष सन्तों तथा देश-देश के सत्संगियों, स्त्री-पुरुषों की सभा बैठी थी ।
          
श्रीजी महाराज ने समस्त सभा से प्रश्न पूछा कि - 'इस लोक में सब लोक वाद विवाद करनेवाले हैं, उनके दो मत हैं । एक तो द्वैतमत है तथा दूसरा अद्वैतमत है । उसमें जो मुमुक्ष होते हैं वे कौन से मत को ग्रहण करते हैं, उसे कहे ?'
          
तब पुरुषोत्तम भट्ट बोले कि - 'हे महाराज ! अद्वैतमतानुसार अपनी आत्मा को ही भगवान जानकर चाहे कैसा भी आचरण किया जाता है जिसके परिणाम स्वरूप भक्त मोक्ष मार्ग से गिर जाता है । अतः मुमुक्षु को तो द्वैतमत ही ग्रहण करना चाहिये ।'
          
तब श्रीजी महाराज ने आशंका व्यक्त की कि - 'द्वैतमत में जो जीव, ईश्वर और माया को सत्य बताया गया है तो जब तक माया रहेगी तब तक जीव का मोक्ष कैसे होगा ?'
          
पुरुषोत्तम भट्ट बोले कि - 'शुभ कर्म करते-करते मोक्ष हो जाता है ।'
          
श्रीजी महाराज ने पुनः आशंका की कि - 'निवृत्ति तथा प्रवृत्ति नामक जो दो प्रकार के कर्म हैं वे तो सुषप्तिरूपी माया में लीन हो जाते हैं । वह सुषुप्ति कैसी है ? जैसे लोकालोक पर्वत को लांघने में कोई भी समर्थ नहीं होता वैसे ही सुषुप्ति का उल्लंघन करने में कोई भी जीव समर्थ नहीं होता । उससे परे साम्यावस्था रूपी माया तो बहुत बडी हैं । उसका तो किसी भी जीव द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अतः उस माया से मुक्त होने का यह उपाय है कि जब समस्त कर्मों और माया के नाश कर्ता तथा माया से परे रहनेवाले साक्षात श्री पुरुषोत्तम भगवान और उन भगवान से मिले हुये सन्त की प्राप्ति होती है तब उनके आश्रय से माया का उल्लंघन हो सकता है ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज महल में भोजन करने पधारे । भोजन करने के पश्चात पुनः अशोकवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान हुये । समस्त सन्तों और हरिभक्तों को अमृतदृष्टि से देखते हुये श्रीजी महाराज बोले कि - 'प्रथम इस जीव को जब कोई नहीं मानता तब उसकी वृत्ति दूसरे प्रकार की रहती है और इसके बाद जब से मनुष्य उसको मानने लगते हैं तब उसका अहंकार भी बढ जाता है और जहॉं हजार मनुष्य या लाख मनुष्य या करोड मनुष्य उसे मानने लगते हैं तब उसका अहंकार भी अलग प्रकार का होता है । कभी ब्रह्मा जैसा होता है, कभी शिव और कभी इन्द्र जैसा होने पर भी यह समझता है कि मेरी महत्ता इन स्वरूपों द्वारा नहीं है बल्कि आत्मज्ञान के द्वारा है । दूसरी सन्त के समागम के महत्ता है । क्योंकि ब्रह्मादि जैसे बडे देव भी सन्त की चरणरज के इच्छुक रहते हैं । सन्त में कौन सी महत्ता है उसे कहते हैं । द्रव्य, पदार्थ या राज्य प्राप्ति से सन्त की महत्ता नहीं रहती परन्तु सन्त की महत्ता तो भगवान की उपासना तथा भक्ति द्वारा होती है । सन्त में आत्मनिष्ठा है वह इनकी महत्ता है । यदि ऐसा ज्ञान न हो तो आत्मा को समझना चाहिये कि प्रकट भगवान जिन्हें मिले हैं ऐसे सन्त में उन्हें आत्मबुद्धि रखनी चाहिये और उन्हें ही अपना स्वरूप मानना चाहिये । तब किसी को आशंका हो सकती है कि जब सन्त को अपना स्वरूप समझते हैं तब यह स्वामी सेवक भाव कैसे रह सकता है ?' यहॉं एक दृष्टान्त है कि - 'गालव राजा को यज्ञा करना था तो उन्हें श्यामकर्ण घोडा लाना था । श्यामकर्ण घोडा तो वरुण लोक में था तो उनके लिये वहॉं जाना सम्भव नहीं था । अतः तब क्या गरुडजी के प्रति गालवराजा का दासभाव मिट गया ? नहीं मिटा, इस प्रकार से ब्रह्म वेत्ता में आत्मबुद्धि माननी चाहिये क्योंकि ब्रह्मवेता सद्गुरु को अष्ट आवरण वेधने का सामर्थ्य है । अतः उनमें आत्मबुद्धि रखनी चाहिये ।' इसके बाद उन्होंने कहा कि - 'आप सबको इस बात को याद रखना चाहिये, यह बात सबके जीवन के लिये है ।'

इति वचनामृतम् ।। १ ।। ।। २३०।।