वचनामृतमप ४

संवत् १८ के फाल्गुन की कृष्ण तृतीया को श्रीजी महाराज श्री पंचाला ग्राम में झीणाभाई के दरबार में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफेद दुपट्टा धारण किया था तथा श्वेत पतल पिछौरी ओढी ६ी । वे अपने हस्तकमल में तुलसी की माला फेर रहे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'समस्त परमहंस परस्पर प्रश्नोत्तर करिए।' तब मुनिबाबा ने ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि - 'भक्त को पहले भगवान का निश्चय हो जाता है और वह भजन स्मरण करता रहता है किन्तु इसके पश्चात् भगवान के मनुष्य चरित्र को देखकर उसका भगवान के स्वरुप के उस निश्चय में संशय हो जाता है, इसका क्या कारण है ?'
         
इस प्रश्न का उत्तर ब्रह्मानन्द स्वामी देने लगे परन्तु यथार्थ रुप से उत्तर न दे सके । तब श्रीजी महाराज काफी देर तक विचार करने के बाद बोले कि - 'इस प्रश्न उत्तर हम देते हैं । वेद, पुराण, महाभारत तथा स्मृति आदि धर्म शास्त्रों में भगवान के अक्षरधाम में स्थित भगवान के सनातन, अनादि, दिव्य, मूलरुप का वर्णन किया गया है कि भगवान कैसे हैं ? इस चक्षु इन्द्रिय द्वारा जो कुछ दिखायी देता है वैसा रुप भगवान का नहीं हैं । श्रवणेन्द्रिय द्वारा जो कुछ शब्द सुने जाते हैं, वैसे शब्द भगवान के नहीं है । त्वचा द्वारा जो स्पर्श किया जाता है वैसा स्पर्श उनका नहीं है । नासिका द्वारा जो सुगन्ध सूंघी जाती है, वैसी सुगन्ध उनकी नहीं है । जिह्वा द्वारा जो वर्णन किया जाता है, वैसे भी वे भगवान नहीं हैं । मन में संकल्प से भगवान ग्राह्य नहीं हो सकते । चित्त भी भगवान के स्वरुप का वैसा चिन्तन नहीं कर सकता । बुद्धि भगवान के स्वरुप का निश्चय नहीं कर सकती । अहंकार द्वारा भी कि - 'मैं इन भगवान का हूँ और वे मेरे हैं' अहम् भाव भी नहीं हो सकता है । इस प्रकार से भगवान इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से अगोचर रहे हैं ।'
          '
इन भगवान का जैसा रुप है, वैसा रुप इस ब्रह्मांड में ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्त किसी का नहीं है, जिससे उनकी उपमा दी जा सके । उनका जैसा शब्द, सुगन्ध, स्पर्श और रस इस ब्रह्मांड में अन्य किसी का भी नहीं है । अतः उसे किसी की उपमा नहीं दी जा सकती है । भगवान का जैसा धाम है वैसा स्थान इस ब्रह्माण्ड में अन्य किसीका नहीं है जिसकी उपमा दी जा सके । सप्तद्वीपों, नवखण्डों में जो जो स्थान हैं और मेरु के ऊपर ब्रह्मादि के जो अत्यंत शोभायुक्त स्थान हैं तथा लोक-लोकाचल में अनेक स्थान हैं, इन्द्र, वरुण, कुबेर, शिव, ब्रह्मा के जो स्थान हैं और जो अन्य अनेक स्थान हैं उन सबमें ऐसा एक भी स्थान नहीं है जिसकी भगवान के धाम से उपमा दी जा सके । उन भगवान के धाम में रहनेवाले भगवान के भक्तों के लिए जैसा सुख है, वैसा सुख इस ब्रह्माण्ड में और कहीं नहीं है जिसकी उपमा दी जा सके । उन भगवान का  जैसा आकार है वैसा आकार इस ब्रह्माण्ड में किसीका नहीं है जिसकी उस उपमा दी जा सके क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में पुरुष-प्रकृति से उत्पन्न जो आकार हैं, वे सब मायिक हैं । भगवान तो दिव्य और अमायिक हैं । अतः उन दोनों में अत्यन्त विलक्षणता है अतः मायिक और अमायिक में सादृष्य कैसे हो सकता है ? जैसे मनुष्य के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि - 'यह मनुष्य भैंस, सर्प, कछवा, गधा, कुत्ता, कौआ, हाथी जैसा है ?' ऐसी उपमा मनुष्य के लिए संभव नहीं है, क्योंकि  मनुष्य से भिन्न जो यह अन्य सब हैं वे विजातीय हैं और मनुष्य-मनुष्य में भी अतिशय सादृश्यता नहीं होती जिसकी उपमा ऐसे दी जाय कि - 'यह तो इसके समान ही है ।' फिर भी यदि वैसा ही सजातीय हो तो उसकी पहचान कैसे हो? अतः मनुष्य-मनुष्य सजाति होने पर भी उसमें समानता नहीं होती । देखिए, यह दो भक्त भगा और मूला दोनों एक समान हैं । परन्तु अधिक दिनों तक साथ में रहे तो उसमें से पहचाना जा सकता है कि - 'यह भगा है और यह भूला है ।' अतः विलक्षणता न हो तो किस प्रकार पहचाना जा सकता है ? अतः मनुष्य-मनुष्य में भीअति सादृष्य भाव नहीं है तो मायिक-अमायिक के सम्बन्ध में सादृष्यता कैसे आ सकती है ? जिसकी उपमा भगवान को दें तथा भगवान के धामको दें, क्योंकि 'जो भगवान हैं वे इन्द्रियों और अन्त-करण के लिये  अगोचर हैं ।' ऐसा समस्त शास्त्रों में कहा गया है । वह भगवान जब जीव को अपना दर्शन देने की इच्छा नहीं करते हैं, तब इस प्रकार से दिव्यरुप एवम् अगोचर होकर अपने अक्षरधाम में रहते हैं । वे भगवान महाराजाधिराज हैं तथा दिव्यरुप असंख्य समृद्धि तथा असंख्य पार्षदों से युक्त हैं और अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के पति हैं । जैसे इस लोक में कोई बडा चक्रवर्ती राजा हो, उसका सूर्योदय और सूर्यास्त पर्यन्त राज्य रहता है और वह राजा अपने तपोबल से देवताओं के समान ऐश्वर्यो को प्राप्त करके स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक नामक तीनों लोकों में राज्य करता है, जैसे अर्जुन सदेह स्वर्ग में इन्द्रासन पर कई वर्षों तक आसीन रहे थे तथा नहुष राजा भी इन्द्र हुआ था । ऐसे प्रतापी चक्रवर्ती राजा के आधीन इतने अधिक गाँव होते हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती क्योंकि वे तो असंख्य हैं तथा गाँव-गाँव के पटेलों की भी गिनती नहीं हो सकती ऐसे गाँव-गाँव के असंख्य पटेल उसके दरबार में अभिवादन करने आते हैं, और उस राजा के धन, माल, भोगों, स्थानों तथा समृद्धियों की भी जिस प्रकार से गणना नहीं हो सकती वैसे ही भगवान असंख्य कोटि ब्रह्माण्डरुप गाँव के राजाधिराज हैं तथा ब्रह्माण्डरुप उस गाँव के मुख्य पटेल तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं । जैसे एक गाँव में एक बडा पटेल होता है, उसे उस गाँव की समस्त प्रजा आकर नमस्कार करती है। उसकी आज्ञा पालन करती है और वह पटेल राजा को नमन करता है । वैसे ही प्रत्येक ब्रह्माण्ड के मुखिया ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं तथा अन्य ब्रह्माण्डों के देव, दैत्य, मनुष्य, ऋषि और प्रजापति उनका भजन स्मरण करते हैं और उनकी आज्ञा में रहते हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भगवान पुरुषोत्तम को भजते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । प्रत्येक ब्रह्मांड के ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भगवान की प्रार्थना करते हैं कि - 'हे महाराज ! कृपा करके आप हमारे ब्रह्मांड में पधारिए ।' जैसे कोई गाँव का पटेल चक्रवर्ती राजा के आगे प्रार्थना करता है कि - 'हे महाराज ! मैं गरीब हूँ । आप मेरे घर पधारें । मुझसे जैसी सेवा चाकरी होगी मैं वह करुँगा । उसी प्रकार से ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भगवान की प्रार्थना करते हैं कि - हे महाराज ! आप दया करके हमें दर्शन दें और हमारे ब्रह्मांड में पधारें । तब वे भगवान उस ब्रह्मांड में देह धारण करते हैं । जहाँ जैसा कार्य करना होता है वहाँ वैसा देह धारण करते हैं और उसी तरह से आचरण करते हैं । यदि वे देव में देह धारण करते हैं तो वह देव के सदृष्य चेष्टा करते हैं तथा पशु शरीर धारण करने पर पशु जैसा आचरण करते हैं । जब भगवान ने वराहरुप देह धारण किया तब उन्होंने पृथ्वी को सूँघकर खोज डाला, हयग्रीव रुप धारण करने पर घोडे की तरह से हिनहिनाने लगे जब उन्होंने मत्स्य-कच्छप आदि जल जन्तुओं का देह धारण किया तब वे जल में ही घूमते रहे परन्तु पृथ्वी पर नहीं घूमे । नृसिंहरुप धारण करने पर उन्होंने सिंह के समान आचरण किया परन्तु मनुष्य जैसी चेष्टा नहीं की । इस तरह से भगवान जब मनुष्य देह धारण करते हैं, तब मनुष्य जैसी क्रिया करते हैं । जब सतयुग आता है तब मनुष्य की आयु एक लाख वर्ष की होती है तब भगवान भी एक लाख वर्ष तक देह धारण करते हैं । उस सतयुग के मनुष्य जब मनोवांछित भोगों का उपभोग करते हैं तब भगवान भी उनके समान भोग भोगते हैं किन्तु अधिक नहीं । त्रेता युग में मनुष्य की आयु दस हजार वर्ष की होती है तब भगवान भी उतने वर्षों तक देह धारण करते हैं । द्वापर में मनुष्य की आयु एक हजार वर्ष की होती है तथा उस मनुष्य में उतना बल होता है और उतनी आयु भी होती है । कलियुग में जब भगवान देह धारण करते हैं तब वे कलियुग के अनुसार बल और आयु धारण करते हैं । जैसे बालक गर्भ में आता है और गर्भ के बढने पर उसका जन्म होता है और उसके बाद उसकी क्रमशः बाल, यौवन, वृद्धावस्था होती है और उसकी मृत्यु हो जाती है । उसी प्रकार भगवान भी, वैसी ही मनुष्य जैसी चेष्टा करते हैं । जैसे मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, मान, स्नेह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वोष, रोग, मोह, सुख, दुःख, भय, निर्भय, शूरता, कायरता, भूख, प्यास, आशा, तृष्णा, निद्रा, पक्षपात, पराया, अपना, त्याग, वैराग्य इत्यादि स्वभाव हैं वैसे ही यह समस्त स्वाभाविक स्वभाव भगवान द्वारा देह धारण करने पर उनमें  दिखाई देते हैं । भगवान के उस मनुष्य स्वरुप का समस्त शास्त्रों में उनके मूल दिव्य स्वरुप का वर्णन किया गया है । जिसने भगवान के इन दोनों रुपों का यथार्थ रुप से श्रवण-मनन करके दृढ निश्चय किया हो उसको तो किसी प्रकार का संशय नहीं होता और दिव्यस्वरुप ऐसे भगवान मनुष्य का रुप धारण करते हैं और मनुष्य जैसे स्वभाव रखते हैं परन्तु बुद्धिमान मनुष्य में इतना विवेक रहता है कि - 'उन भगवान में काम है परन्तु काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, मान, इत्यादि स्वभाव है वह अन्य मनुष्य जैसा नहीं है ।' उनमें कोई दिव्यभाव अवश्य है जो बुद्धिमान पुरुष के समझ में आता है और उसके अनुसार भगवान का निश्चय हो जाता है । जैसे शंकराचार्य ने श्रृंगार रस की बात जानने के लिए राजा के शरीर में प्रवेश किया । उस समय राजा के समान श्रृंगारिक हाव-भाव प्रगट किए थे और दैहिक चेष्टा की थी । परन्तु राजा की रानी बुद्धिशाली थी । उसने यह जान लिया कि - 'मेरे पति में ऐसा चमत्कार नहीं था अतः इस देह में किसी अन्य जीव ने प्रवेश किया है ।' वैसे ही मनुष्यरुपी भगवान में दिव्यभाव प्रतीत होता है और उससे उस स्वरुप में भगवान का निश्चय होता है । तब आप कहेंगे कि - 'भगवान ने दिव्यभाव दिखाया और उसे भगवान का स्वरुप का निश्चय हो गया तब अत्याधिक दिव्यभाव दिखलाया जाय तो अनेक मनुष्यों को ऐसा निश्चय हो जाय ।' इसका मतलब तो यह है कि सूर्य को समस्त शास्त्रों में 'नारायण कहा गया है' सूर्य समस्त मनुष्यों को दृष्टिगोचर भी होते हैं । सभी मनुष्य प्रतिदिन उनका दर्शन करते हैं । फिर भी उनके दर्शन से आत्मकल्याण का निश्चय नहीं होता कि - 'मेरा कल्याण हो गया परन्तु मनुष्यरुप धारण करनेवाले राम-कृष्ण आदि अवतारों तथा नारद, शुक्र आदि सन्तों के दर्शन करने से मनुष्य को ऐसा निश्चय हो जाता है कि - मेरा कल्याण निश्चितरुप से हो गया है और मैं कृतार्थ हो गया हूँ ।' उन भगवान तथा संत में तो कुछ प्रकाश नहीं है । दीपक करने पर उनका दर्शन होता है तो भी उसे ऐसे कल्याण का निश्चय हो जाता है । अग्नि भी साक्षात भगवान है क्योंकि भगवान ने यह कहा है कि -

'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।'
         
इस प्रकार से सब अग्नि का दर्शन करते हैं परन्तु मनुष्य को उससे आत्मकल्याण का निश्चय नहीं होता है । जबकि भगवान और संत के दर्शन के पश्चात उसे निश्चय हो जाता है उसका क्या कारण है ? मनुष्य में और सूर्य की अग्नि में विजातीयता है है अतः उनके दर्शन से कल्याण का निश्चय नहीं होता क्योंकि अग्नि का स्पर्श करने से वह जल कर मर जाता है । सूर्य को कुन्ताजी ने दुर्वासा द्वारा दिए मंत्र से बुलाया तो सूर्य कुन्ताजी के पास मनुष्यरुप से आये तब उनके अंग-संग के सुख से कर्णरुप गर्भ रहा । परन्तु सूर्य प्रकाशवान हैं यदि वे अपने प्रकाश के साथ वहाँ आते तो कुन्ताजी जलकर मर जाती और उन्हें स्पर्श का भी सुख न मिलता । तथा सत्राजित यादव के पास सूर्य मनुष्यरुप धारण करके आते थे । जब सूर्य कुन्ताजी और सत्राजित के पास आये थे तब क्या वे आकाश में नहीं थे ? वे आकाश में भी थे और उसी अन्य रुप में कुन्ताजी और सत्राजित के पास आये थे । सूर्य का जैसा प्रकाश है वह समस्त उनमें  था । परन्तु वे उनका संकोचन करके मनुष्यरुप होकर आये थे । वैसे वे जो भगवान हैं वे स्वयं अपने दिव्यभाव सहित जीव को दर्शन दें तो मनुष्य को ठीक नहीं लगेगा और वह यह समझेगा कि - 'यह क्या भूत होगा या और क्या  होगा ?' अतः भगवान अपने ऐश्वर्यों का संकोच करके मनुष्य के समान होकर भक्त को दर्शन देते हैं और स्वयं अपने धाम में विराजमान हैं । तब मनुष्य दर्शन, स्पर्श तथा नव प्रकार की भक्ति कर सकते हैं । यदि भगवान मनुष्य के समान न हों और दिव्य भाव से प्रकट होते रहें, तो उनके प्रति मनुष्यों को हेत नहीं होता और सुख भी नहीं मिलता क्योंकि मनुष्य को मनुष्य में हेत होता है और सुख मिलता है और पशु और मनुष्य में स्नेह नहीं होता और सुख नहीं मिलता। पशु को पशु में परस्पर स्नेह हो जाता है और सुख मिलता है क्योंकि सजातीय में ही स्नेह होता है, परन्तु विजातीय में यह नहीं होता । वैसे ही भगवान अपने दिव्यभाव का संकोचन करके अपने भक्त को अपने प्रति स्नेह कराने के लिए मनुष्य जैसा रुप धारण करते हैं परन्तु उसे दिव्यभाव नहीं दिखलाते । यदि वे दिव्यभाव दिखलाएँ तो विजातीय भाव उत्पन्न हो सकता है अतः भक्त को उनके प्रति स्नेह नहीं होता और सुख भी नहीं मिलता । अतः भगवान मनुष्यरुप धारण करते हैं तब अपने दिव्यभाव को छिपाकर रखने में ही अपनी दृष्टि रखते हैं। अपने इस स्वरुप को छिपाकर रखते-रखते जब वे अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक कोई कार्य करने में तल्लीन हो जाते हैं, तब उनका दिव्यभाव प्रकट हो जाता है । कभी-कभी तो वे अपनी इच्छा से ही अपने किसी भक्त को अपना दिव्यभाव दिखाते हैं । जब श्रीकृष्ण भगवान ने भीष्म को मारने के लिए शीघ्रता की तब वे अपने मनुष्य भाव को भूल गये और उनमें दिव्यभाव आ गया । इससे पृथ्वी अपने भार को सहन करने में असमर्थ हो गयी तब भगवान ने अर्जुन को अपना दिव्यभाव दिखाया । उन्होंने अपना दिव्यभाव, अपनी इच्छा से ही दिखाया परन्तु उस दिव्यभाव को देखकर अर्जुन को सुख नहीं मिला और वे व्याकुल हो गए। ततपश्चात श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने मनुष्यरुप का दर्शन कराया तब अर्जुन को सुख मिला और उन्होंने कहा कि -

दृष्टवेदं मानुषं रुपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ।।
         
अतः भगवान का मनुष्यरुप ही जीव के लिए अनुकूल रहता है अन्य नहीं । इसलिए वे भगवान मनुष्यरुप से प्रकट होते हैं । जो जीव इस प्रकार नहीं समझता उसे मनुष्य भाव देखकर शंका होती है । यदि वे भगवान दिव्यभाव से प्रकट रहें तो वह मन और वाणी से अगोचर होने के कारण जीव के जानने में नहीं आ सकते । अतः शास्त्रों में भगवान के दो स्वरुपों का वर्णन है । इस तरह से जिसने यथार्थ जान लिया है उसे किसी प्रकार का संशय नहीं होता किन्तु जो ऐसा नहीं जानता, उसके मन में जरुर संशय होता है ।
         
जो यह कहता है कि - 'मैं ने भगवान को जाना है और मुझे निश्चय भी है' उसने यदि इस बात को नहीं समझा तो यही कहना पडेगा कि उसका निश्चय अपरिपक्व है जैसे किसी पुरुष ने श्लोक सीखा हो तथा कीर्तन सीखा हो तो उससे पूछा जाय कि - 'क्या तुम्हें यह श्लोक और कीर्तन आता है ?' तो वह कहेगा कि उसने यह सीख लिया है तथा कंठ से उसका पाठ करके भी बता देता है । परन्तु कुछ दिन के बाद वह उस श्लोक और कीर्तन को भूल जाता है । तब क्या जब उसने वह श्लोक और कीर्तन सीखा था तो पूर्णरुप से नहीं सीखा था । क्योंकि श्रवण मनन द्वारा दृढ अभ्यास करके उसने इस श्लोक को और कीर्तन को हृदय पूर्वक नहीं सीखा था । किसी किसी बात का तो          बाल्यावस्था में ही इतना अच्छा अभ्यास हो जाता है कि वह युवान हो, वृद्ध हो तब भी जब उस बात का काम पडे तब उसकी याद आ जाती है । वैसे ही उसने जब भगवान सम्बन्धी निश्चय किया था तब उसके निश्चय में कसर रह गयी थी यदि कसर न हो तो इस प्रकार पहले से ही श्रवण करके उसका मनन करके दृढ अभ्यास उसके जीव में हो गया होता तब उसे किसी भी दिन संशय न होता ।'     

इति वचनामृतमप ।।४।।  ।। १३० ।।