वचनामृतम् ५५

 संवत् १८६ की माघ कृष्ण एकादशी को श्रीजी महाराज दादाखाचर के राजभवन में अपने ठहरने के स्थान में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख संत तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''प्रश्नोत्तर करिए !'' तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - ''जीव के लिए भजन, स्मरण तथा वर्तमान की दृढता क्यों नहीं रहती ?'' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - ''अशुभ देश, काल, क्रिया और संग का योग होने के कारण ऐसी दृढता नहीं रहती । यह दृढता भी तीन प्रकार की होती है, जिसका स्वरुप उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ होता है । उनमें भी उत्तम दृढता तो हो, किन्तु देश, काल, क्रिया औैर संग बहुत खराब हो, तो जब वे उसे भी समाप्त कर डालते हैं, तब मध्यम और कनिष्ठ दृढता की तो बात ही क्या ? देश, काल, क्रिया और संग के अत्यन्त खराब होने पर भी यदि दृढता ज्यों की त्यों बनी रहती है तो उसका कारण पूर्व जन्म के संस्कार और भारी पुण्य हैं । यदि देश, काल, क्रिया और संग सभी अति पवित्र हैं, फिर भी यदि पुरुष की बुद्धि मलिन हो जाती है तो यही कहा जाएगा कि उसके लिए पूर्वजन्म तथा इस जन्म का कोई बडा पाप बाधक बन रहा है अथवा भगवान के किसी बडे भक्त से हुआ द्रोह ही उसके मार्ग में रुकावट डाल रहा है क्योंकि देश, काल, क्रिया और संग तो अच्छा है, तो भी उसका अंतःकरण खराब हो जाता है । इसलिए यदि वह अब बडे पुरुष की सेवा में सावधानी के साथ रहता है तो उसके पाप जलकर भस्म हो जाएंगे । यदि अति पापी का संग हो गया तो पाप बढता ही जाता है तथा अल्प पुण्य भी नष्ट हो जाते हैं और मदिरापान करनेवाली वेश्याएँ उसके गले में हाथ डालकर बैठ जाती हैं । फिर भी, वह परमेश्वर के ही दोष निकालता है कि भगवान ने 'मेरा मन ठिकाने पण क्यों नहीं रखा ।' ऐसे को तो महामूर्ख समझना चाहिए ।'' 

इति वचनामृतम्  ।। ५५ ।।