संवत् १८६ के माघ महीने की कृष्ण द्वितीया को रात्रि के समय स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सफेद चूडीदार पाजामा और श्वेत अंगरखा पहना था, सिर पर सफेद पाग बांधी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''कुछ प्रश्न करिए !'' तब पूर्णानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - ''दस इन्द्रियाँ तो रजोगुणात्मक हैं तथा चार अंतःकरण सत्वगुण मूलक हैं । समस्त इन्द्रियाँ तथा अंतःकरण मायिक हैं और भगवान तो माया से पर हैं, तब मायिक अंतःकरण द्वारा उनका निश्चय किस प्रकार हो सकता है ? और चक्षु आदि मायिक इन्द्रियों द्वारा भगवान कैसे दृष्टिगोचर हो सकते हैं ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''मायिक वस्तुओं द्वारा मायिक पदार्थों का बोध हो सकता है । इस कारण, मायिक अंतःकरण तथा इन्द्रियों द्वारा भगवान को बोधगम्य किया जाय तो भगवान भी मायिक सिद्ध हो जायेंगे, यही आपका प्रश्न है ?'' तब पूर्णानंद स्वामी तथा समस्त मुनियों ने कहा कि - ''हे महाराज! यही प्रश्न है, जिसकी आपने पुष्टि कर दी है ।'' श्रीजी महाराज बोले कि - ''सका तो उत्तर यह है कि पचास कोटि योजन पर्यन्त पृथ्वी का पीठ है, उस पृथ्वी पर घटपटादिक अनेक पदार्थ हैं । उन समस्त पदार्थों में यह पृथ्वी रही है तथा अपने स्वरुप से भिन्न भी रही है । इसलिए, जब पृथ्वी की दृष्टि से देखेंगे तो प्रतीत होगा कि इन समस्त पदार्थों के रुप में पृथ्वी का अस्तित्व बना हुआ है और पृथ्वी के सिवा दूसरा कोई भी पदार्थ नहीं है । वह पृथ्वी जल के एक अंश से हुई है और जल तो पृथ्वी के नीचे, पार्श्व में और ऊपर भी है तथा पृथ्वी के मध्य में भी जल सर्वत्र व्याप्त होकर रहा है । इसलिए यदि जल की दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा लगेगा कि पृथ्वी नहीं, बल्कि अकेला जल ही है । इस जल की भी उत्पत्ति तेेज के एक अंश से हुई है, इसलिए तेज की दृष्टि से देखने पर जो जल नहीं, वरन् अकेला तेज ही दिखायी पडेगा। वह तेज भी वायु के एक अंश से उत्पन्न हुआ है, इसलिए वायु की दृष्टि से देखने पर तेज नहीं, किन्तु एकमात्र वायु ही दिखायी पडेगा । वायु भी आकाश के एक अंश से उत्पन्न हुआ है, इसलिए आकाश की दृष्टि से देखने पर वायु आदि चारों भूत तथा उनके कार्य पिंड ब्रह्मांड कुछ भी नहीं दिखेंगे, किन्तु अकेला आकाश ही सर्वत्र दिखायी पडेगा । वह आकाश भी तामस अहंकार के एक अंश से उत्पन्न हुआ है । वह तामस अहंकार, राजस अहंकार, सात्त्विक अहंकार तथा भूत, इन्द्रियाँ, अंतःकरण और देवता, ये सब महत्त्व के एक अंश से उत्पन्न हुए हैं । अतएव, महत्व की दृष्टि से देखा जाय तो तीन प्रकार का अहंकार, भूत, इन्द्रियाँ, अंतःकरण तथा देवता, ये सब नहीं, बल्कि केवल महत्तत्त्व ही दिखायी पडेगा । यह महत्तत्त्व भी प्रधान-प्रकृति के एक अंश से उत्पन्न हुआ है । इसलिए, यदि प्रकृति की दृष्टि से देखें तो महत्तत्त्व नहीं, एकमात्र यह प्रकृति ही दिखायी पडेगी । वह प्रकृति भी प्रलयकाल में पुरुष के एक अंश में लीन हो जाती है और बाद में सृष्टि के समय एक अंश से उत्पन्न होती हैं । इसलिए, पुरुष की दृष्टि से देखें तो यह प्रकृति नहीं, अकेला पुरुष ही दिखाई पडेगा । ऐसे अनंत कोटि पुरुष हैं, जो महामाया के एक अंश से उत्पन्न होते हैं । इसलिए, इस महामाया की दृष्टि से देखने पर तो ये पुरुष नहीं, अकेली महामाया ही दिखायी पडेगी। यह महामाया भी महापुरुष के एक अंश में से उत्पन्न होती है । इसलिए, यदि महापुरुष की दृष्टि से देखा जाय तो यह महामाया नहीं, बल्कि अकेला महापुरुष ही दिखायी पडेगा । यह महापुरुष भी पुरुषोत्तम भगवान के अक्षरधाम के एक स्थल में से उत्पन्न होता होता है । इसलिए, इस अक्षर की दृष्टि से देखें तो ये महापुरुष आदि सब नहीं, वरन एक अक्षर ही दिखायी पडेगा । उस अक्षर से परे जो अक्षरातीत पुरुषोत्तम भगवान हैं, वे ही सबकी उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कर्ता हैं और सबके कारण हैं । जो कारण है, वह अपने कार्य में व्यापक होता है तथा उससे अलग भी रहता है । इसलिए, उन सबके कारण पुरुषोत्तम भगवान की दृष्टि से देखा जाय तो उनके सिवा अन्य कुछ भी दिखायी नहीं पडेगा । वे भगवान कृपा करके जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर सभी मनुष्यों को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं । उस समय तो जीव संत का समागम करके इन पुरुषोत्तम भगवान की ऐसी महिमा को समझ लेता है, तभी उसकी इन्द्रियाँ और अंतःकरण सब पुरुषोत्तममय हो जाते हैं । तब उनके द्वारा उन भगवान का निश्चय होता है। जिस प्रकार तीर के द्वारा ही तीर छेदा जाता है, दूसरे के द्वारा नहीं छिदता, वैसे ही भगवान का दर्शन भी भगवान के द्वारा ही होता है किन्तु मायिक इन्द्रियों तथा अंतःकरण द्वारा नहीं होता ।'' ऐसी वार्ता करने के बाद श्रीजी महाराज 'जय सच्चिदानंद' कहकर अपने निवास पधारे ।
इति वचनामृतम् ।। ५१ ।।