वचनामृतम् ३५

संवत् १८६ के पौष महीने की कृष्ण द्वादशी के दिन स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे पलंग पर पूर्व की और मुखकमल किये बिराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज मुनि से बोले - ''आप प्रश्न पूछिए या हम पूछें ?'' तब मुनियों ने कहा - ''हे महाराज ! आप पूछिए ।'' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - ''कोई पुरुष है, उसमें अल्प बुद्धि है तो भी वह अपने कल्याण के लिए जो प्रयत्न करता है उससे पीछे नहीं हटता और कोई दूसरा पुरुष है, जिसमें बुद्धि तो अधिक है तथा बडे-बडे व्यक्तियों की भी गलती निकालने की क्षमता रखता है, फिर भी वह कल्याण के मार्ग पर नहीं चलता, इसका क्या कारण है ?'' तब मुनि उत्तर देने लगे, किन्तु श्रीजी महाराज ने आशंका प्रकट की इसलिए यथार्थ उत्तर नही हो सका । इसके पश्चात श्रीजी महाराज बोले ''अच्छा, हम इसका उत्तर देते हैं । उसमें बुद्धि तो अधिक है, परन्तु वह दूषित है, इसलिए वह कल्याण के मार्ग पर नहीं चल सकता । जैसे भैंस का बढिया दूध हो और उसमें शक्कर मिलायी गयी हो, किन्तु उसमें यदि सर्प की लार गिर पडे तो वह शक्कर मिश्रित दूध जहर हो जाता है, बाद में उसे अगर कोई जीव पी ले तो उसका प्राणान्त हो जाता है, वैसे ही बुद्धि तो अधिक है, किन्तु उसने किसी बडे संत या परमेश्वर के प्रति अवगुण-भाव रखा है, इसलिए यह अवगुणरुपी दोष उसकी बुद्धि में आ गया है, जो सर्प की लार के सदृश है, इसलिए वह कल्याण के मार्ग पर कैसे चल सकता है ? यदि कोई उसके मुख की बात सुने तो सुननेवाले की बुद्धि भी सत्संग में से पिछड जाती है । इस प्रकार की दूषित बुद्धिवाला जहाँ-जहाँ जन्म लेता है, वहाँ-वहाँ वह भगवान या उनके भक्त से द्रोह ही करता है और जिसकी बुद्धि इस प्रकार दूषित न हो और वह यदि थोडी ही हो तो भी वह आत्मकल्याण के लिए यत्न करने से पीछे नहीं  हटता ।''

तब मुक्तानंदस्वामी ने पूछा - ''हे महाराज ! वह कभी भगवान के सम्मुख होता है या नहीं ?'' तब श्रीजी महाराज ने कहा - ''वह तो कभी भी भगवान के सम्मुख होता ही नहीं है ।''

तत् पश्चात मुक्तानंदस्वामी ने पूछा - ''हे महाराज ! किसी भी प्रकार से ऐसी आसुरी बुद्धि न हो, उसका उपाय बताइये ।'' तब श्रीजी महाराज बोले ''एक क्रोध, दूसरा मान, तीसरी ईर्ष्या और चौथा कपट, इन चारों को परमेश्वर तथा संत के प्रति नहीं रखना चाहिए, तो कभी भी उसकी आसुरी बुद्धि नहीं होगी । यदि इन चारों में से किसी एक को भी रखा गया हो जय-विजय जो अधिक बुद्धिमान थे तो भी सनकादिक के साथ अभिमान करने के कारण बैकुंठ लोक में से उनका पतन हो गया और आसुरी बुद्धि हो गयी, उसी तरह उसकी भी आसुरी बुद्धि हो जाती है । जब आसुरी बुद्धि होती है, तब भगवान और भगवद्भक्त के गुण दोष जैसे दिखायी पडते हैं और वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है वहाँ-वहाँ या तो शिव का गुण होता है या दैत्यों का कोई राजा होता है । और वैरभाव से परमेश्वर का भजन करता है ।''

इति वचनामृतम् ।। ३५ ।।