वचनामृतम् ३३

संवत् १८६ के पौष महीने की कृष्ण - पंचमी के दिन का पिछला प्रहर था और तब श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के निकटवर्ती कमरे के बरामदे में पूर्व की ओर मुखारविन्द किए पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सफेद दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और शिर पर कुसुंभी रंग के पल्लेवाला फेंटा बांधा था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख उस समय मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तत् पश्चात मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि भगवान् को प्रसन्न करने के लिए शास्त्रो में अनेक प्रकार के साधन बताए गए हैं, परन्तु उनमें ऐसा कौनसा सुदृढ साधन है, जो अन्य समग्र साधनों के समान केवल उससे ही भगवान प्रसन्न हो जाएँ ? कृपया ऐसा एक उपाय बताइए । तब श्रीजी महाराज बोले कि 'भगवान् जिस एक ही साधन से प्रसन्न होते हैं, उसे हम कहते हैं, सुनिए, वह यह है कि भगवान का दृढ आश्रय ही समस्त साधनों में बडा साधन है, जिससे भगवान प्रसन्न होते हैं, उस आश्रय में अतिदृढता होनी चाहिए और उसमें किसी भी प्रकार का खोललापन नहीं रहना चाहिए । उस आश्रय के भी तीन प्रकार हैं । उनमें से एक मूढता के साथ भगवान का आश्रय लेने से संबंधित है । जैसे अतिमूढ को ब्रह्मासदृश शक्तिवाला कोई भी पुरुष आश्रय से विचलित करे तो भी वह नहीं डगमगाता । और, दूसरा प्रकार यह है कि भगवान में प्रीति रहने से उनका आश्रय दृढ हो जाता है । जिसे ऐसी दृढ प्रीति होती है, वह तो परमेश्वर के सिवा किसी भी प्रकार के अन्य पदार्थों से प्रयत्नपूर्वक प्रीती करे तो भी वैसी नहीं हो पाती । इस प्रकार की सुदृढ प्रीति से भगवान का दृढ आश्रय कहा जाता है । तीसरा प्रकार यह है कि जिसकी बुद्धि विशाल होती है, उसे भगवान के सगुण - निर्गुण भाव तथा अन्वयव्यतिरेक - भाव को समझता हो तथा भगवान की माया से जो सृजन हुआ है उसे समझता हो और पृथ्वी पर भगवान के जो अवतार होते हैं उनकी रीति को समझता हो और जगत की उत्पत्ति के समय भगवान जिस प्रकार अक्षर रुप से वर्तते हैं तथा पुरुष प्रकृति के रुप से विराट पुरुष के रुप से ब्रह्मादि प्रजापति के रुप से तथा जीवों के कल्याण के लिए नारद सनकादिक के जो रुप से वर्तते हैं, उन सभी रीतियों को समझ लेता हो और पुरुषोत्तम भगवान को सबसे परे और निर्विकार समझता हो, इस रुप में जिसकी दृष्टि पहुँचती हो, उसे बुद्धिपूर्वक भगवान का दृढ आश्रद है । वह किसी के बहकाने से बहकता नहीं न वह स्वयं बहकता है । और भगवान मनुष्य देह धारण करके समर्थता या असमर्थता दिखाते हों तो भी अपने भीतर भ्रांति पैदा न कारे ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - कहिये तो आपसे एक प्रश्न पूछें, तब मुक्तानन्द स्वामी बोले कि - 'पूछिये महाराज !' तब यह पूछा कि - 'हमने जो तीन अंग बताये हैं, उनमें से आपका कौन-सा अंग है ? भगवान के भक्त में ये तीनों अंग मिश्रित रहते हैं, परन्तु उनमें भी जो अंग प्रधान होता है, वही उसका अंग कहलाता है । इस तरह मूढता प्रीति तथा ज्ञान, इन तीनों अंगों में से आपका अंग कौन-सा है ?'

 फिर मुक्तानंद स्वामी तथा ब्रह्मानंद स्वामी बोले - 'हमारा तो बुद्धि का अंग है ।' इस प्रकार अन्य साधुओं ने भी अपने अपने अंग बताए ।

इति वचनामृतम् ।। ३३ ।।